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Wednesday, 30 November 2022

ब्रह्मर्षि परशुराम तथा प्रभु श्रीराम संवाद

 



ब्रह्मर्षि परशुराम तथा प्रभु श्रीराम संवाद


सीता के स्वयंवर सभा में जब किसी से शिव-धनुष नहीं टूटा , तो राजा जनक ने अपनी अंतर्व्यथा इस प्रकार प्रकट की -

काहुं  न  संकर  चाप  चढ़ावा ।।

जौं जनतेउं बिनु भट भुबि भाई।

तौ  पनु  करि  होतेउं  न  हंसाई ।।

किसी ने भी शंकर जी का धनुष नहीं चढ़ाया।

यदि मैं जानता कि पृथ्वी वीरों से शून्य है , तो प्रण करके उपहास का पात्र न बनता।


यह सुनकर लक्ष्मण से रहा नहीं गया। वे  क्रोधित हो बोल उठे - 

कमल नाल जिमि चाप चढ़ावौं। 

जोजन  सत  प्रमान  लै  धावौं। 

धनुष को कमल की डंडी की तरह चढ़ा कर उसे सौ योजन तक दौड़ा लिए चला जाऊं।

श्रीराम ने इशारे से लक्ष्मण को मना किया । श्रीराम स्वयं निर्विकार बैठे रहे । उन्होंने अपनी तरफ से कोई पहल नहीं की और न ही राजा जनक को कोई जवाब दिया। जब गुरु विश्वामित्र ने धनुष तोड़ने की आज्ञा दी , तब वे धनुष तोड़ने उठ खड़े हुए।


पर , जब अत्यंत क्रोध में भरकर परशुराम जी राजा जनक से पूछे कि धनुष किसने तोड़ा है ? उसे शीघ्र दिखाओ , नहीं तो आज मैं जहां तक तुम्हारा राज्य है , वहां तक की धरती उलट दूंगा। यह सुनकर नगर के स्त्री - पुरुष सभी सोच में पड़ गए और सभी के हृदय में बड़ा भय व्याप्त हो गया।

तब श्रीराम ने क्या किया ? इस पर तुलसीदासजी लिखते हैं -

सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु।

हृदयं न  हरषु  बिषादु  कछु  बोले श्रीरघुबीरु।। 

तब सब लोगों को भयभीत देखकर और सीता को डरी हुई जानकर हर्ष एवं विषाद से मुक्त श्रीराम बोले।


इस प्रसंग में श्रीराम अपने गुरु की आज्ञा नहीं लेते। बिना आज्ञा के ही वे कह उठते हैं। इस पर तनिक विचार करने की आवश्यकता है।

शिव-धनुष को श्रीराम ने तोड़ा है - यह बात कोई बताने को तैयार नहीं है क्योंकि परशुरामजी अति क्रोधावस्था में हैं। उस क्रोधावस्था में वे धनुष तोड़नेवाले को मार डालेंगे। अतः श्रीराम को बचाने के लिए सभी चुप हैं।

श्रीराम देख रहे हैं कि मेरे कारण ही जनकपुर के संपूर्ण राज्य को तहस-नहस करने पर परशुरामजी तुले हुए हैं। अगर वे स्वयं सच नहीं बताते हैं , तो उसका परिणाम जनकपुर के लिए भयावह होगा। 


अतः वे कह उठते हैं -

नाथ    संभुधनु   भंजनिहारा ।

होइहिं केउ एक दास तुम्हारा।। 

हे नाथ ! शिवजी के धनुष को तोड़ने वाला आपका कोई एक दास ही होगा।

श्रीराम तो स्वयं प्रभु हैं , पर वे यहां परशुरामजी के एक दास (सेवक) के रूप में अपना परिचय दे रहे हैं। यही तो प्रभु की महानता है। वे अपने को स्वामी के रूप में नहीं बल्कि सेवक के रूप में स्वयं को पेश कर रहे हैं , जबकि हम सभी जानते हैं कि वे तो संपूर्ण जगत के स्वामी हैं।


मिथिलेश ओझा की ओर से आपको नमन एवं वंदन।

।।   श्री राम जय राम जय जय राम   ।।

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