Breaking

Post Top Ad

Your Ad Spot

Thursday, 8 September 2022

 


आज भादों शुक्ल द्वादशी अर्थात  पद्मा एकादशी/डोल ग्यारस और श्री हरिः के वामन रूप में प्रकट होने का शुभ दिवस!

त्यक्त्वा कर्मफल आसङ्गं नित्य तृप्तः निराश्रयः।कर्मणि अभिप्रवृत्तः अपि न एव किञ्चित् करोति सः।ज्ञान कर्म संन्यास योग ४/२०।

भावार्थ-कर्मों के फलों की आसक्ति को त्याग कर बिना किसी कामना के आश्रय के हमेशा  तृप्त रहता हुआ और सुचारू रूप से सभी कर्मों को भलीभाँति सम्पादित करते हुए भी वह (योगी, ज्ञानी या भक्त) कभी कुछ भी नहीं करता।

व्याख्या- इस श्लोक का भावार्थ अत्यंत सरल होते हुए भी जीवन में अपनाने पर अत्यन कठिन और दुर्लभ है।फिर भी यदि कर्म फलों की वासना का हमेशा के लिए त्याग कर दिया जाए तब इस श्लोक का भावार्थ जीवन में उतर कर स्वयंसिद्ध है।साधारणतया क्या सदा सर्वदा प्रत्येक काल में हरेक मनुष्य या प्राणी किसी न किसी फल की इच्छा से ही कदम आगे बढ़ाता है अर्थात अपने लक्ष्य के प्रति तभी जागरूक होता है जब अभीष्ट फल दृष्टि में अर्थात अंतःकरण और विचारों में गोते लगाते हों ।

और यही फलों की वासना इस मनुष्य के बंधन का कारण बन जन्म मृत्यु में हेतु होती है।तो फिर किया क्या जाए ? किस प्रकार फल की चाहत के बिना ही उध्यम किया जाए।और उत्तर में सिर्फ यही संकल्प  करना है कि हे प्रभु तूने मुझे यह शरीर सिर्फ तेरी और मानवता की सेवा के लिए दिया है अतः मेरी सभी कर्म इन्द्रियां और ज्ञान इन्द्रियां तुझ को और तेरे बन्दों की सेवा में ही अर्पित हों।और बस हो गया आपका काम।जैसे जैसे यह धारणा  दृढ़ होती जाएगी कि इस संसार में मेरे प्रभु के आलावा मेरा कुछ भी नहीं है, 

कोई भी नहीं है ,वैसे वैसे ही सभी कर्म भी सही दिशा में सम्पादित होते जाएंगे और ना ना करते हुए भी आप सबसे बड़े फल अर्थत मोक्ष या आत्यांतिक शांति के भागीदार बनेगें क्योंकि इस संसार में कोई भी कर्म निष्फल नहीं जाता।अब आप उस फल की कामना करो और चाहे ना करो। सार स्वरुप अपने सभी शास्त्र  सम्मत कर्म मानवता की सेवा में लगा दो और प्रत्युत्तर में पाओ निर्वाण रूपी शांति अर्थात उसके साथ सायुज्यता और उसमें विलीन होने की प्रक्रिया।जोड़िये ६/१५ से ध्यान योग/क्रिया योग के सन्दर्भ में "शान्तिं निर्वाण परमां मत् संस्थाम् अधिगच्छति।

"अर्थात निर्वाण की परम शांति को प्राप्त करता है जो मेरे ही अंदर कहीं छुपी है।इसी प्रकार उस फल को मोक्ष संन्यास योग में भक्ति योग के परिपेक्ष्य में भगवान यूं वर्णित करते हैं "भक्त्या मां अभिजानाति यावान् यः च अस्मि तत्वतः।ततः मां तत्वतः ज्ञात्वा विशते तदनन्तरं।अर्थात इस प्रकार मेरी परा भक्ति करता हुआ मैं जैसा हूँ वैसा अपने अनुभव में लाते हुए मुझमें प्रवेश कर जाता है।१८/५५।

निष्कर्ष- आपकी प्रकृति को अब चाहे ज्ञानमार्ग रुचिकर लगे जो कि  शुद्ध विशुद्ध ध्यान से जुड़ा है और या फिर कर्मयोग रूपी मार्ग और या फिर भक्तियोग और उससे जुड़ा ईश्वरीय समर्पण और पूर्ण  शरणागति,फल सिर्फ एक ही है और वह है उसकी और सिर्फ उसकी प्राप्ति जो कि माया का अधिपति होने के बावजूद भी माया से परे है। गीता विद्यार्थी।


No comments:

Post a Comment

Post Top Ad

Your Ad Spot