🌸निर्बल के बल राम🌸
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वर्णन आता है कि सुग्रीव ने जब अपने सारे संस्मरण सुनाये, पूरी आत्मकथा सुनायी तो लक्ष्मण जी बड़े आश्चर्य से देखने लगे। क्योंकि पूरे संस्मरण में एक ही बात थी कि वे मायावी के डर से भागे, बालि से डरकर भागे तथा भगवान् श्रीराम से डर कर भी भागने ही वाले थे, और रावण से तो डर के मारे लड़े ही नहीं। लक्ष्मणजी ने भगवान् श्रीराम से पूछा -- क्या आपको गीधराजजी की याद आती है ? प्रभु की आँखों में आँसू आ गये, बोले -- लक्ष्मण ! उन्हें खोकर तो मैंने पिताजी को दूसरी बार खो दिया है। और तब लक्ष्मणजी ने व्यंग्यभरी भाषा में पूछा -- सुग्रीव आपको कैसे लगते हैं ? प्रभु ने कहा -- सुग्रीव भी अच्छे लगते हैं। लक्ष्मणजी ने कहा महाराज! क्या अच्छे हैं ? कहाँ गीधराज जैसा वीर व्यक्ति और कहाँ सुग्रीव जैसा भागने की वृत्ति वाला कायर व्यक्ति! आप इनको भी अच्छा बताये दे रहे हैं।
प्रभु ने कहा -- देखो! तो इसका हृदय कितना सरल है। इस बेचारे ने कोई मिथ्याचार नहीं किया, कितने स्पष्ट रूप से अपनी असमर्थता को स्वीकार कर लिया कि रावण से लड़ने का साहस मुझमें नहीं है। और देखो लक्ष्मण! एक प्रकार से इन्होंने यह अच्छा ही किया। क्योंकि अगर गीधराज की तरह इन्होंने भी प्राणोत्सर्ग कर दिया होता तो इनका महान् प्रेम तो प्रकट होता किन्तु कोई लाभ नहीं था। पर लगता है कि इनका चिन्तन कितना श्रेष्ठ है, इन्होंने सोचा होगा कि हम अकेले रावण को भले ही न हरा सकें पर श्रीसीताजी जिनकी प्रिया उन्हें श्रीसीताजी के चिह्न वस्त्रादि देकर उनके साथ जाकर रावण को परास्त कर देंगे। इसलिये ये तो बड़े अच्छे राजनीतिज्ञ हैं, प्रशंसा के पात्र हैं। लक्ष्मणजी ने कहा -- प्रभु! इस तरह गुणान्वेषण कर पाना तो आप के सिवाय किसी अन्य के लिये संभव नहीं है।
गोस्वामीजी ने लिखा कि जब बालि ने मुष्टि प्रहार किया तो वे फिर भागे --
तब सुग्रीव बिकल होइ भागा।
मुष्टि प्रहार बज़ सम लागा।।
लक्ष्मणजी को हँसी आ गयी, चाहे कुछ भी कह लीजिये! मित्र बना लिया, अभय कर दिया पर फिर भी वही भागने की वृत्ति। भगवान् ने कहा -- नहीं लक्ष्मण ! तुमने अंतर नहीं देखा, पहली बार जब मायावी के डर से भागा तो घर में छिपा था। दूसरी बार बालि के भय से भागा तो ऋष्यमूक पर्वत पर छिपा और तीसरी बार भागा तो मेरी शरण में आ गया। तो क्या यह भागना उपयोगी नहीं है ? यह क्यों नहीं देखते कि भाग कर भी मेरे पास आ गया ? मानो भगवान् ने निर्भयता का नहीं, भय का उपयोग किया।
सुग्रीव जब लड़ने लगे तो यह देखकर प्रसन्न नहीं हो गये कि वाह! यह बालि से लड़ रहा है। गोस्वामीजी ने शब्द लिखा कि जब तक छल-बल से लड़ रहे थे तब तक तो वे आनंद ले रहे थे पर अगला शब्द लिखा कि --
बहु छल बल सुग्रीव करि हियेँ हारा भय मानि।
जब हृदय में भय आ गया तब --
मारा बालि राम तब हृदय माझ सर तानि।।
भगवान् का बाण चलता है और वह बालि के हृदय में जाकर लगता है। मानो सुग्रीव के हृदय की भक्ति, हृदय की व्याकुलता ही भगवान् को प्रेरित करती है कि वे बालि का वध कर सुग्रीव को संकट से मुक्त करें।
जय रामजी की!!!
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