एवं बहुविधाः यज्ञाः वितताः ब्रह्मणः मुखे।कर्म जान् विद्धि तान् एवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे। ज्ञान कर्मसन्यास योग ४/३२।
भावार्थ-इस प्रकार बहुत सारे यज्ञों का वेदों में उल्लेख है।और उन सभी यज्ञों को तू कर्म से सम्पादित होने वाला जानते हुए इस संसार चक्र अर्थात कर्म बंधन से छूट जाएगा।
व्याख्या- इस श्लोक को दो पदों में विघटित कर समझने में आशय और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है।
०१.एवं बहुविधाः यज्ञाः वितताः ब्रह्मणः मुखे - इस तरह बहुत प्रकार के विविध यज्ञ ब्रह्मा के मुख से प्रस्फुटित हो वेदों में वर्णित हैं।यूं तो भगवान ने ४/२४ से ४/३० तक प्रमुख बारह यज्ञों का संछिप्त वर्णन किया है तथापि वेदों में बहुतेरे कई अन्य यज्ञों का वर्णन आता है जो कि सामवेद,ऋगवेद और यजुर्वेद में कथित हैं।अथर्वेद तो एक प्रकार से इन्हीं तीनों का विस्तार सा है।
वास्तव में वेद साक्षात् ईश्वर का रूप हैं जो कि भगवान विष्णु,श्री हरिः या नारायण ने सृष्टिकर्ता ब्रह्मा को अपने योगिक बल से प्रक्षेपित किये और वही वाक्य ब्रह्मा के मुख से प्रस्फुटित होने के कारण "ब्रह्मणः मुखे" नामक पद से यहाँ व्यक्त किये जा रहे हैं।वेदों में कुल १,००,००० मन्त्र और ऋचाएँ हैं जिनमें से लगभग ७५ से ८०,००० कर्मकांड से सम्बन्ध रखते हुए इस सृष्टि के विकास और भौतिक उपलब्धियों,मानवीय सुखों की प्राप्ति यथा कंचन,कामिनी और कीर्ति की प्राप्ति तथा स्वर्गारोहण से सम्बन्ध रखते/रखती हैं।शेष भाग २० से २५००० वेदांत के अंतर्गत आता है जिसमें उपनिषद प्रमुख हैं और आत्म कल्याण अर्थात आत्मा,परमात्मा और माया पर प्रकाश डालते हुए मुक्ति का मार्ग सुलभ करते हैं।यहाँ पर ब्रह्मणः मुख का अर्थ वेद ही है।
०२.कर्मजान् विद्धि तान् एवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे- उन सभी यज्ञों को तू कर्मों से संपादित होने वाला जान और इस प्रकार उन यज्ञों के रहस्य को समझते,समझाते और आत्मसात करते हुए तू अंत में मुक्त हो जायेगा।यहाँ पर कर्मों से यज्ञों के सम्पादन से तात्पर्य है मन वचन और शरीर से की गयी क्रियाएं।अपनी अपनी रूचि और सामर्थ्य अनुसार विभिन्न साधकों को वेद निहित ये यज्ञ,शारीरिक श्रम के स्तर पर या फिर मानसिक
और या फिर वाचिक श्रम के स्तर पर रुचिकर होते हैं।शारीरिक सामर्थ्य से किये गए यज्ञ जैसे कि द्रव्य यज्ञ और तप यज्ञ जिसमें कि शारीरिक श्रम का बाहुल्य है या फिर जप यज्ञ जिसमें मन और बुद्धि का मन्त्र विशेष में या फिर भगवान के नाम विशेष में स्थिर मन से प्रेमपूर्वक निवेश और या फिर वाचिक यज्ञ जिसमें स्वाध्याय और उससे जुड़ा श्रीमद्भगवद्गीता और
रामायण तथा महाभारत और पुराणों का पठन,पाठन और आख्यान सम्मिलित है।और इस प्रकार वेदों को आधार बनाकर तथा उनमें निहित विविध यज्ञों को भलीभांति सम्पादित करते हुए तू (एक साधक) आत्मा का परमात्मा से शाश्वत और माया से नश्वर सम्बन्ध समझते हुए ईश्वर से सायुज्यता को प्राप्त हो जायेगा अर्थात उस परमब्रह्म,परमपद में विलीन हो जायेगा।
निष्कर्ष- हमारे हाथों में सिर्फ कर्म ही हैं।अब चाहें वे कर्म इन्द्रियों द्वारा भौतिक स्तर पर स्थूल शरीर द्वारा सम्पादित हों अथवा मन और बुद्धि सहित ज्ञान इन्द्रियों द्वारा मानसिक स्तर पर सूक्ष्म शरीर से।बस हमें अपनी दिशा बदलनी है।जब यही शारीरिक,मानसिक और बौद्धिक कर्म माया से प्रेरित हो माया की प्राप्ति के लिए होते हैं तब वे बंधनकारी हैं और जब यही कर्म यज्ञ स्वरुप वेदवाणी सम्मत हो निष्काम भाव से जगत कल्याण और ईश्वर की प्रसन्नता के लिए होते हैं तब वे मुक्तिदायक हैं।गीता विद्यार्थी।
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