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Sunday, 21 August 2022

ज्ञान कर्म संन्यास योग ४/१९ Bhagavatgita

 


यस्य सर्वे समारम्भाः काम  संकल्प वर्जिताः।ज्ञान अग्नि दग्ध कर्माणं तं आहुः पण्डितम् बुधाः।ज्ञान कर्म संन्यास योग ४/१९। 

भावार्थ- जिसके सभी कर्मों का आरम्भ बिना किसी कामना से प्रेरित हुए संकल्प रहित होता है और जिसने कि अपने सभी कर्मों को ज्ञान रूपी अग्नि से भस्म कर दिया है ऐसे व्यक्ति को बुद्धिमान ज्ञानियों द्वारा भी पंडित कहा जाता है।

व्याख्या- यह श्लोक ज्ञान योग और कर्म योग के परिपेक्ष्य में अपने आप में पूर्ण है।एक शुद्ध अन्तःकरण वाला साधक इस श्लोक के मर्म को स्वतः ही समझ सकता है,आसानी से बूझ जाता है।श्लोक को दो पदों में विभक्त करने पर व्याख्या सुगम हो जाती है।

०१.यस्य सर्वे समारम्भाः काम संकल्प वर्जिताः।जिस मनुष्य के सभी कर्मों का आरम्भ बिना किसी सांसारिक कामना की तृप्ति के लिए और उससे जुड़े संकल्प अर्थात अग्रिम पुरुषार्थ की ललकार के सम्पादित होते हैं सिर्फ जन कल्याण और यज्ञ अर्थात लौकिक जगत के उत्थान के लिए।यहाँ पर कामना और संकल्प दोनों ही जैसे पर्यायवाची हैं।जहाँ कामना है वहां संकल्प भी क्योंकि किसी कामना की पूर्ती बिना उद्यम के नहीं होती और उद्यम अर्थात कर्म और उससे जुड़े प्रयास बिना संकल्प के सुचारू रूप से सम्पादित नहीं होते।

इसी प्रकार जहाँ संकल्प है कि मुझे अमुक अमुक सांसारिक लक्ष्य की प्राप्ति करनी है वहां उस संकल्प से जुड़े फलों की कामना भी है ताकि एक अज्ञानी पुरुष उस फल की लालसा में संकल्प लेते हुए उद्यम रत हो जाये।इसके विपरीत आध्यात्मिक लक्ष्य से प्रेरित होने वाले ज्ञानी पुरुष सभी सांसारिक कामनाओं से रहित होने के कारण सभी समारम्भों अर्थात सभी कर्मों के आरम्भ से लेकर अंत तक फल की वासना से रहित हो कर्म करते हैं।यहाँ तक कि एक पूर्ण ज्ञानी और सच्चा शरणागत भक्त मुक्ति रूपी फल और उससे जुडी कामना और संकल्प से भी रहित होता है।

०२.ज्ञान अग्नि दग्ध कर्माणं तं आहुः पण्डितम् बुधाः।और ऐसे ज्ञानवान पुरुष को जिसने कि अपने अध्यात्म ज्ञान से या फिर ईश्वर और श्रीमद्भगवद्गीता की परा भक्ति से अपने सभी कर्मों को जीते जी इस जीवन में ही भस्म कर दिया है को बड़े से बड़े बुद्धिमान और ज्ञानी भी पंडित कह कर पुकारते हैं।यहाँ पर भगवान् पुनः अपने सभी कर्मों को संकल्प और कामना रहित हो सम्पादित करने की आज्ञा दे रहे हैं ताकि वे सभी कर्म संसार में होते हुए और लौकिक दिखते हुए भी ज्ञान अग्नि से भस्म होकर अलौकिक और अदृश्य हो जाएं अर्थात परलोक और अन्य जन्मों में फल उत्पन्न करने में विफल।

सारस्वरूप जन्म मृत्यु का कारण न बनकर स्वतः से ही और उसकी आज्ञा से मुक्ति कारक हो जाएं।और इस प्रकार से कर्म के मर्म को जानते हुए जो मनुष्य गण इस जीवन में ही अपने सभी कर्मों को ज्ञान अग्नि और ईश्वर की परा भक्ति से भस्म कर देते हैं उनको ज्ञानी जन भी पंडित कहते हैं।

निष्कर्ष- अपने सभी लौकिक और अलौकिक कर्म हमेशा कर्म फल की वासना से रहित होने चाहिए।संकल्प को आधार बनाकर किसी कामना से जुड़ते हुए कर्मों का संपादन करना जरा मृत्यु को आव्हान देना और फिर पुनः जन्म का कारण होता है।अतः संकल्प और कामनाओं का सदा सर्वदा त्याग होना चाहिए ताकि आप ज्ञानियों द्वारा भी स्वतः ही पंडित कहलाएं।और यह पांडित्य भी स्वतः से ही और उसकी आज्ञा से होना चाहिए निर्लिप्त भाव से।गीता विद्यार्थी।


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