क्या है मणिकर्णिका घाट की मान्यता :
मणिकर्णिका घाट को लेकर पौराणिक मान्यता है कि माता पार्वती जी का कर्ण फूल यहां एक कुंड में गिर गया था, जिसे ढूंढने का काम भगवान शिव द्वारा किया गया। यही कारण है कि इस घाट का नाम मणिकर्णिका घाट पड़ा, वहीं दूसरी मान्यता भी है की भगवान शिव द्वारा माता पार्वती का अग्नि संस्कार यहीं किया गया। इसी घाट के पास में ही काशी की आद्या शक्तिपीठ विशालाक्षी का मंदिर है। एक अन्य कहानी देवी सती के कान की मणि गिरने की भी है।
देवाधिदेव महादेव शिवशंकर की नगरी काशी जिसे वाराणसी और बनारस के नाम से भी जाना जाता है। वाराणसी में 84 घाट गंगा तट पर स्थापित हैं, जिनमें से अधिकांश धार्मिक अनुष्ठान, पूजा-पाठ के लिए उपयोग किए जाते हैं। लेकिन, यहां का मणिकर्णिका घाट अंत्येष्टि के लिए प्रसिद्ध है। इसे महाश्मशान घाट भी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि यहां जिस व्यक्ति का अंतिम संस्कार होता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
मणिकर्णिका घाट के बारे में कहा जाता है कि यहां स्थित श्मशान घाट पर 24 घंटे चिताएं जलती रहती हैं। ऐसी भी कहावत है कि जिस दिन इस श्मशान घाट पर चिता नहीं जलेगी, वाराणसी के लिए वह दिन प्रलय का होगा।
भगवान विष्णु ने की थी तपस्या
जनश्रुतियों के अनुसार, भगवान विष्णु ने भी हजारों वर्ष तक इसी घाट पर भगवान शिव की आराधना की थी। विष्णुजी ने शिवजी से वरदान मांगा कि सृष्टि के विनाश के समय भी काशी को नष्ट न किया जाए। भगवान शिव और माता पार्वती विष्णुजी की प्रार्थना से प्रसन्न होकर यहां आए थे। तभी से मान्यता है कि यहां मोक्ष की प्राप्ति होती है।
घाट की एक और मान्यता यह है कि भगवान शंकरजी द्वारा माता सती के पार्थिव शरीर का अग्नि संस्कार मणिकर्णिका घाट पर किया गया था जिस कारण से इसे महाश्मशान भी कहते हैं। मोक्ष की चाह रखने वाला इंसान जीवन के अंतिम पड़ाव में यहां आने की कामना करता है।
मुर्दों के बीच साल में एक बार मणिकर्णिका घाट पर महोत्सव भी होता है। यह महोत्सव चैत्र नवरात्र की सप्तमी की रात में होता है। इस महोत्सव में पैरों में घुघंरू बांधी हुई नगर वधुओं (सेक्स वर्कर) हिस्सा लेती हैं। महाश्मशान पर अनूठी साधना की परंपरा श्मशान नाथ महोत्सव का हिस्सा है। मौत के मातम के बीच वे नाचती-गाती हैं।
नाचते हुए वे ईश्वर से प्रार्थना करती हैं कि उनको अगले जन्म में ऐसा जीवन ना मिले। मान्यता है कि जलती चिताओं के सामने नटराज को साक्षी मानकर वे यहां नाचेंगी तो अगले जन्म में नगरवधू का कलंक नहीं झेलना पड़ेगा। यह परंपरा अकबर काल में आमेर के राजा सवाई मान सिंह के समय से शुरू होकर अब तक चली आ रही है। मान सिंह ने ही 1585 में मणिकर्णिका घाट पर मंदिर का निर्माण करवाया था।
श्मशान नाथ उत्सव में महाश्मशान की वजह से जब कोई कलाकार संगीत का कार्यक्रम प्रस्तुत करने के लिए तैयार नहीं हुआ तो मानसिंह ने नगर वधुओं को आमंत्रण भेजकर बुलवाया। वे इसे स्वीकार कर पूरी रात महाश्मशान पर नृत्य करती रहीं। तब से यह उत्सव काशी की परंपरा का हिस्सा बन गया।
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