महर्षि वाल्मीकी की जीवन कथा-
महर्षि वाल्मीकि का जन्म महर्षि कश्यप और अदिति के नौवें पुत्र वरुण और उनकी पत्नी चर्षणी के घर में हुआ। महर्षि वाल्मीकि के भाई महर्षि भृगु भी परम ज्ञानी थे। महर्षि वाल्मीकि की जीवन गाथा काफी सुप्रसिद्ध रही है। पौराणिक कथा के अनुसार वाल्मीकि महर्षि बनने से पूर्व उनका नाम रत्नाकर था। रत्नाकर अपने परिवार के पालन के लिए दूसरों से लूटपाट किया करते थे।
एक समय उनकी भेंट नारद मुनि से हुई। रत्नाकर ने उन्हें भी लूटने का प्रयास किया तो नारद मुनि ने उनसे पुछा कि वह यह कार्य क्यों करते हैं? रत्नाकर ने उत्तर दिया कि परिवार के पालन-पोषण के लिए वह ऐसा करते हैं।
नारद मुनि ने रत्नाकर से कहा कि वह जो जिस परिवार के लिए अपराध कर रहे हैं और क्या वे उनके पापों का भागीदार बनने को तैयार होंगे? असमंजस में पड़े रत्नाकर ने नारद मुनि को पास ही किसी पेड़ से बांधा और अपने घर उस प्रश्न का उत्तर जानने हेतु पहुंच गए। उनके परिवार ने उनके पापों में भागीदार होने से इनकार कर दिया। यह जानकर उन्हें निराशा हुई।
यह सुन रत्नाकर वापस लौटे, नारद मुनि को खोला और उनके चरणों पर गिर गए। तत्पश्चात नारद मुनि ने उन्हें सत्य के ज्ञान से परिचित करवाया और उन्हें परामर्श दिया कि वह राम-राम का जाप करे। फिर रत्नाकर ने धुनी रमा ली और वह राम नाम का तप करने लगे। ध्यान में मग्न वाल्मीकि के शरीर के चारों ओर दीमकों ने अपना घर बना लिया।
जब वाल्मीकि जी की साधना पूर्ण हुई तो वे दीमकों के घर से बाहर निकले। चूंकि दीमकों के घर को वाल्मीकि कहते हैं, तो वे वाल्मीकि के नाम से विख्यात हुए। राम नाम जपते-जपते ही रत्नाकर महर्षि बन गए और आगे जाकर महान महर्षि वाल्मीकि के नाम से विख्यात हुए। इसलिए महर्षि वाल्मीकि के जन्मदिन को वाल्मीकि जयंति के रूप में मनाया जाता है।
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