ऋग्वेद में इन्द्र
गोस्वामी तुलसीदास जी ने इन्द्र के बारे में लिखा हैकि - ‘काक समान पाप रीतौ छलीमलीन कतहूं न प्रतीतो‘ अर्थात इन्द्र का तौर तरीकाकाले कौए का सा है, वह छली है। उसका हृदय मलीन है तथा किसी पर वह विश्वास नहीं करता। वह अश्वमेध के घोड़ों को चुराया करता था। इन्द्र ने गौतम की धर्मपत्नी अहल्या का सतीत्व अपहरण किया था। कहानी इस प्रकार है- शचीपति इन्द्र ने आश्रम से इन्द्र की अनुपस्थिति जानकर और मुनि का वेष धारण कर अहल्या से कहा।।।। हे अति सुन्दरी! कामीजन भोगविलास के लिए ऋतुकाल की प्रतीक्षा नहीं करते, अर्थात इस बात का इन्तज़ार नहीं करते कि जब स्त्री मासिक धर्म से निवृत हो जाएतभी उनके साथ समागम करना चाहिए। अतः हे सुन्दर कमर वाली! मैं तुम्हारे साथ प्रसंग करना चाहता हूं।। ।। विश्वामित्र कहते हैंकि हे रामचन्द्र! वह मूर्खा मुनिवेशधारी इन्द्र को पहचान कर भी इस विचार से कि देखूं देवराज के साथ रति करने में कैसा दिव्य आनन्द प्राप्त होता है, इस पाप कर्म के करने में सहमत हो गई।। ।। तदनंतर वह वह कृतार्थ हृदय से देवताओं में श्रेष्ठ इन्द्र से बोलीकि हे सुरोत्तम! मैं कृतार्थ हृदय से अर्थात दिव्य-रति का आनन्दोपभोग करने से मुझे अपनी तपस्या का फल मिल गया। अब, हे प्रेमी! आप यहां से शीघ्र चले जाइये।। ।। हे सुन्दर नितम्बों वाली! मैं पूर्ण सन्तुष्ट हूं। अब जहां से आया हूं, वहां चला जाऊँगा। इस प्रकार अहल्या के साथ संगम कर वह कुटिया से निकल गया।
धार्मिक ग्रन्थों मे छायावाद, रहस्यवाद का प्रयोग प्राचीनकाल से प्रचलित है उसपर वैदिक शब्दावली सोने पे सुहागा का काम करती थी अत: उपरोक्त कथन शब्दार्थ मात्र है वास्तविक अर्थ समझने के लिए विष्लेशण आवश्यक है विष्लेशण करने पर भिन्न भिन्न अर्थ सामने आते हैं विष्लेशण निम्न हैं-
वैदिक शब्दावली में अहिल्या का मतलब होता है " बिना हल चली " यानि बंजर भूमि। जैसा कि ज्ञात ही है इंद्र दुसरे देशो (असुरो के) पर आक्रमण करता था तो परिणाम स्वरूप हरी भरी भूमि बंजर हो जाती थी (उस समय लोग कृषि पर निर्भर रहते थे और खेती ही उनका मुख्य भोजन का स्रोत भी था।) इंद्र, इस भोजन के स्रोत या जंगल के स्रोत जिससे फल कंद मूल आदि मिलते थे उन्हें नष्ट कर के अपने दुश्मनों को नुकसान पहुचाता था। कालांतर में विश्वामित्र ने राम से जब कहा कि ये अहिल्या है, तो हो सकता है उनका तात्पर्य हो कि ये "बिना हल चली" यानि बंजर भूमि है इसे उपजाऊ बनाओ और राम ने उस भूमि को फिर से उपजाऊ बनाया हो। दूसरा प्रसंग 'ब्रह्मपुराण (87-59)" और "आनंद रामायण " के अनुसार हो सकता है, अपभ्रंश में 'सिरा '(शिला) शब्द के दो अर्थ हैं एक तो पत्थर और दूसरा सुखी नदी, हो सकता है की इंद्र ने जैसा कि मैंने कृषि के रूप में विष्लेशण किया है उसी तरह यह भी कह सकते हैं कि वस्तुत: कोई नदी होगी जो इंद्र के दुश्मन देश में जाती होगी और उसके मुख्य पानी के स्रोत को इंद्र ने सुखा दिया होगा ताकि दुश्मन देश को पानी न मिल सके और बाद में राम ने इसे जलयुक्त बनाया होगा।
इस प्रकार देखें तो वास्तव में अहिल्या प्रसंग प्रकृति का मानवीकरण मात्र है, पर राम भक्त कवियों ने इसे स्त्री मान लिया ताकि राम को ईश्वर का अवतार सिद्ध किया जा सके। क्यों की इस प्रकार साधारण जन मानस में राम को ईश्वर का अवतार आसानी से मनवाया जा सकता था क्यों की यदि ईश्वर चमत्कार न करे तो उन्हें ईश्वर कौन मानेगा ? पंडितजी से कथा सुनते समय भक्ति भावना कैसे पैदा होगी? भक्ति भावना के बगैर ध्यान एकाग्र होना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य होता है। कथा के पुन्य की प्राप्ति के लिए भक्ति भाव से ध्यान एकाग्र कर कथा सुनने का प्रावधान पता ही है।
परिचय
इन्द्र की चरितावली में वृत्रवध का बड़ा महत्त्व है।
अधिकांश वैदिक विद्वानों का मत है कि वृत्र सूखा (अनावृष्टि) का दानव है और उन बादलों का प्रतीक है जो आकाश में छाये रहने पर भी एक बूँद जल नहीं बरसाते। इन्द्र अपने वज्र प्रहार से वृत्ररूपी दानव का वध कर जल को मुक्त करता है और फिर पृथ्वी पर वर्षा होती है। ओल्डेनवर्ग एवं हिलब्रैण्ट ने वृत्र-वध का दूसरा अर्थ प्रस्तुत किया है। उनका मत है कि पार्थिव पर्वतों से जल की मुक्ति इन्द्र द्वारा हुई है।
हिलब्रैण्ट ने सूर्य रूपी इन्द्र का वर्णन करते हुए कहा है: वृत्र शीत (सर्दी) एवं हिम का प्रतीक है, जिससे मुक्ति केवल सूर्य ही दिला सकता है। ये दोनों ही कल्पनाएँ इन्द्र के दो रूपों को प्रकट करती हैं, जिनका प्रदर्शन मैदानों के झंझावात और हिमाच्छादित पर्वतों पर तपते हुए सूर्य के रूप में होता है। वृत्र से युद्ध करने की तैयारी के विवरण से प्रकट होता है कि देवों ने इन्द्र को अपना नायक बनाया तथा उसे शक्तिशाली बनाने के लिए प्रभूत भोजन-पान आदि की व्यवस्था हुई। इन्द्र प्रभूत सोमपान करता है। इन्द्र का अस्त्र वज्र है जो विद्युत प्रहार का ही एक काल्पनिक नाम है।
ऋग्वेद में इन्द्र को जहाँ अनावृष्टि के दानव वृत्र का वध करने वाला कहा गया है, वहीं उसे रात्रि के अन्धकार रूपी दानव का वध करने वाला एवं प्रकाश का जन्म देने वाला भी कहा गया है।
ऋग्वेद के तीसरे मण्डल के वर्णनानुसार विश्वामित्र के प्रार्थना करने पर इन्द्र ने विपाशा (व्यास) तथा शतद्रु नदियों के अथाह जल को सुखा दिया, जिससे भरतों की सेना आसानी से इन नदियों को पार कर गयी।
इन्द्र की शक्तियां
इन्द्र के युद्ध कौशल के कारण आर्यों ने पृथ्वी के दानवों से युद्ध करने के लिए भी इन्द्र को सैनिक नेता मान लिया। इन्द्र के पराक्रम का वर्णन करने के लिए शब्दों की शक्ति अपर्याप्त है। वह शक्ति का स्वामी है, उसकी एक सौ शक्तियाँ हैं। चालीस या इससे भी अधिक उसके शक्तिसूचक नाम हैं तथा लगभग उतने ही युद्धों का विजेता उसे कहा गया है। वह अपने उन मित्रों एवं भक्तों को भी वैसी विजय एवं शक्ति देता है, जो उस को सोमरस अर्पण करते हैं।
इन्द्र और वरुण
नौ सूक्तों में इंद्रस् एवं वरुण का संयुक्त वर्णन है। दोनों एकता धारण कर सोम का पान करते हैं, वृत्र पर विजय प्राप्त करते हैं, जल की नहरें खोदते हैं और सूर्य का आकाश में नियमित परिचालन करते हैं। युद्ध में सहायता, विजय प्रदान करना, धन एव उन्नति देना, दुष्टों के विरूद्ध अपना शक्तिशाली वज्र भेजना तथा रज्जुरहित बन्धन से बाँधना आदि कार्यों में दोनों में समानता है। किन्तु यह समानता उनके सृष्टि विषयक गुणों में क्यों न हो, उनमें मौलिक छ: अन्तर है:
वरुण राजा है।
असुरत्व का सर्वोत्कृष्ट सत्ताधारी है तथा उसकी आज्ञाओ का पालन देवगण करते हैं।
जबकि इन्द्र युद्ध का प्रेमी एवं वैर-धूलि को फैलाने वाला है।
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