श्मशानवासी व चिताभस्मालेपी
शैव-सिद्धान्तसार में कहा गया है कि प्रलयकाल में शिव के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं रहता, ब्रह्माण्ड श्मशान हो जाता है, उसकी भस्म और रुण्ड-मुण्ड में शिव ही व्यापक होता है, अत: शिव को ‘श्मशानवासी’, ‘चिताभस्मालेपी’ और ’रुण्डमुण्डधारी’ कहा गया है न कि वह अघोरियों के समान चिता-निवासी है।
राख, मसान और राम-नाम प्रेमी भगवान शिव
भगवान शिव का राम-नाम पर बहुत स्नेह है । एक बार कुछ लोग एक मुरदे को श्मशान (मसान) ले जा रहे थे और ‘राम-नाम सत्य है’ ऐसा बोल रहे थे । शिवजी ने राम-नाम सुना तो वे भी उनके साथ चल दिए । जैसे पैसों की बात सुनकर लोभी आदमी उधर खिंच जाता है, ऐसे ही राम-नाम सुनकर शंकरजी का मन भी उन लोगों की ओर खिंच गया । अब लोगों ने मुरदे को श्मशान में ले जाकर जला दिया और वहां से लौटने लगे । शिवजी ने विचार किया कि बात क्या है ? अब कोई आदमी राम-नाम ले ही नहीं रहा है । उनके मन में आया कि उस मुरदे में ही कोई करामात थी, जिसके कारण ये सब लोग राम-नाम ले रहे थे । अत: उसी के पास जाना चाहिए । शिवजी ने श्मशान में जाकर देखा कि वह मुरदा तो जलकर राख हो गया है । अत: शिवजी ने उस मुरदे की राख अपने शरीर में लगा ली और वहीं रहने लगे । ‘राख’ और ‘मसान’ दोनों के पहले अक्षर लेने से ‘राम’ हो जाता है। इसीलिए शंकरजी को ये दोनों ही प्रिय हैं।
शिव महिम्न: स्तोत्र के एक श्लोक का अर्थ है—‘शंकरजी! आप श्मशानों में क्रीडा करते हैं, प्रेत-पिशाचगण आपके साथी हैं, चिता की भस्म आपका अंगराग है, आपकी माला भी मनुष्य की खोपड़ियों की है। इस प्रकार यह सब आपका अमंगल स्वांग देखने में भले ही अशुभ हो, फिर भी स्मरण करने वाले भक्तों के लिए तो आप परम मंगलमय ही हैं।’
भगवान शिव समन्वय के प्रतीक हैं। उनके लिए अच्छा-बुरा सब समान है। कोई भी वस्तु उनके लिए अप्रिय नहीं है। श्मशान और राजमहलों का निवास उनके लिए समान है। चंदन और चिताभस्म दोनों को ही वे सहज रूप में स्वीकार करते हैं। भस्म या चिताभस्मलेप शिव के ज्ञान-वैराग्य और विनाशशील विश्व में अविनाशी (भस्म) को स्वीकार करने का संकेत देता है।
मृत्यु को सदैव याद रखें
भगवान शिव स्वयं मृत्युंजय हैं किन्तु मनुष्य मरणशील है । अत: मनुष्य को सदैव यह याद दिलाने के लिए कि श्मशान ही उसका आखिरी विश्रामगृह है और इस शरीर को एक दिन राख ही होना है, भगवान शंकर ने श्मशान और चिताभस्म को अपनाया ।
शैव-सिद्धान्तसार में कहा गया है कि प्रलयकाल में शिव के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं रहता, ब्रह्माण्ड श्मशान हो जाता है, उसकी भस्म और रुण्ड-मुण्ड में शिव ही व्यापक होता है, अत: शिव को ‘श्मशानवासी’, ‘चिताभस्मालेपी’ और ’रुण्डमुण्डधारी’ कहा गया है न कि वह अघोरियों के समान चिता-निवासी है।
राख, मसान और राम-नाम प्रेमी भगवान शिव
भगवान शिव का राम-नाम पर बहुत स्नेह है । एक बार कुछ लोग एक मुरदे को श्मशान (मसान) ले जा रहे थे और ‘राम-नाम सत्य है’ ऐसा बोल रहे थे । शिवजी ने राम-नाम सुना तो वे भी उनके साथ चल दिए । जैसे पैसों की बात सुनकर लोभी आदमी उधर खिंच जाता है, ऐसे ही राम-नाम सुनकर शंकरजी का मन भी उन लोगों की ओर खिंच गया । अब लोगों ने मुरदे को श्मशान में ले जाकर जला दिया और वहां से लौटने लगे । शिवजी ने विचार किया कि बात क्या है ? अब कोई आदमी राम-नाम ले ही नहीं रहा है । उनके मन में आया कि उस मुरदे में ही कोई करामात थी, जिसके कारण ये सब लोग राम-नाम ले रहे थे । अत: उसी के पास जाना चाहिए । शिवजी ने श्मशान में जाकर देखा कि वह मुरदा तो जलकर राख हो गया है । अत: शिवजी ने उस मुरदे की राख अपने शरीर में लगा ली और वहीं रहने लगे । ‘राख’ और ‘मसान’ दोनों के पहले अक्षर लेने से ‘राम’ हो जाता है। इसीलिए शंकरजी को ये दोनों ही प्रिय हैं।
शिव महिम्न: स्तोत्र के एक श्लोक का अर्थ है—‘शंकरजी! आप श्मशानों में क्रीडा करते हैं, प्रेत-पिशाचगण आपके साथी हैं, चिता की भस्म आपका अंगराग है, आपकी माला भी मनुष्य की खोपड़ियों की है। इस प्रकार यह सब आपका अमंगल स्वांग देखने में भले ही अशुभ हो, फिर भी स्मरण करने वाले भक्तों के लिए तो आप परम मंगलमय ही हैं।’
भगवान शिव समन्वय के प्रतीक हैं। उनके लिए अच्छा-बुरा सब समान है। कोई भी वस्तु उनके लिए अप्रिय नहीं है। श्मशान और राजमहलों का निवास उनके लिए समान है। चंदन और चिताभस्म दोनों को ही वे सहज रूप में स्वीकार करते हैं। भस्म या चिताभस्मलेप शिव के ज्ञान-वैराग्य और विनाशशील विश्व में अविनाशी (भस्म) को स्वीकार करने का संकेत देता है।
मृत्यु को सदैव याद रखें
भगवान शिव स्वयं मृत्युंजय हैं किन्तु मनुष्य मरणशील है । अत: मनुष्य को सदैव यह याद दिलाने के लिए कि श्मशान ही उसका आखिरी विश्रामगृह है और इस शरीर को एक दिन राख ही होना है, भगवान शंकर ने श्मशान और चिताभस्म को अपनाया ।
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